Health

न्यूरो सर्जरी जगत के ‘महानंदन’ डा. आर सी मिश्रा

-जौनपुर के गांव कटका से लेकर आगरा और अब नोयडा तक संघर्षपूर्ण सफर की अजीब कहानी

-आगरा की बंजर जमीन पर हमने रोपा न्यूरो सर्जरी का पौधा: डा. मिश्रा

– न्यूरोलॉजिकल में ही नहीं, संपूर्ण चिकित्सा में भी लोकप्रियता के पायदान चढ़ रहा है ग्रेनो स्थित महानंदन सुपर स्पेशलिटी हास्पीटल

 राजेश मिश्रा: महानंदन का शाब्दिक अर्थ तो पुत्र, राजा के लिए होता है लेकिन, परम सुख देने वाला का भावार्थ  भी है। न्यूरो सर्जरी के ऐसे ही महानंदन हैं डा.आर सी मिश्रा। मंगलवार 30 सितंबर की रात करीब 12 बजे मैं ये आर्टिकल ग्रेटर नोयडा स्थित उस महानंदन सुपर स्पेशियलिटी हास्पीटल के प्राइवेट रूम में  बैठकर लिख रहा हूं जिसके संस्थापक डा. आर सी मिश्रा ही हैं। न्यूरो सर्जरी के राष्ट्रीय ही नही, अंतरराष्ट्रीय फलक पर भी जिनका नाम ही काफी है। वो आर सी मिश्रा, जिनके बारे में वो लोग तो बहुत ही अच्छी तरह से बता सकते हैं जिन्होंने भगवान द्वारा प्रदत्त उनके चिकित्सकीय कौशल का अनुभव आत्मसात किया है। इसलिए जब भी जटिल से जटिल न्यूरो सर्जरी के लिए किसी विशेषज्ञ का नाम प्राथमिकता पर लिया जाता है तो वो आर सी मिश्रा ही हैं।

न्यूरोलॉजिकल क्षेत्र में डा. आर सी मिश्रा के नाम उपलब्धियों का खजाना है। आगरा में वे छह अंतरराष्ट्रीय स्तर की कांफ्रेंस का आयोजन कराने का रिकार्ड है। न्यूरो सर्जरी क्षेत्र में वे अब तक 25 हजार से ज्यादा सर्जरी कर चुके हैं। आगरा में कई दशकों की सेवा के बाद ग्रेटर नोयडा में महानंदन सुपर स्पेशियलिटी हास्पीटल स्थापित कर उन्होंने न्यूरोलॉजिकल देखभाल के लिए एक उत्कृष्ट केंद्र का स्वरूप दिया है। हालांकि, इस अस्पताल में अन्य सभी तरह की चिकित्सा सुविधाएं  भी उपलब्ध हैं। विश्वस्तरीय उपकरण हैं। अपने-अपने क्षेत्र में प्रख्यात चिकित्सकों की टीम है। प्रशिक्षित पैरामेडिकल स्टाफ है। अपनी गुणवत्तापरक सेवाओं के लिए ये अस्पताल राष्ट्रीय स्तर पर अपनी लोकप्रियता के पायदान चढ रहा है। इस अस्पताल की स्थापना के बारे में डा. आर सी मिश्रा कहते हैं कि न कोई पूर्व प्लानिंग थी और न ही कोई परिकल्पना। आगरा से यहां तक कैसे आ गए, मैं भी नहीं जानता। हां, 31 दिसंबर 2024 की रात को एक दिन मूड बना और  अगले ही दिन यहां आकर ओपीडी की, इसके बाद सर्जरी। इसके साथ ही शुरू हो गया एक नया सिलसिला।

नोयडा आकर भी  डा. मिश्रा को  आगरा से जितना लगाव बरकरार है, आगरावासियों के लिए भी उतना जुड़ाव बना हुआ है। वे कहते हैं कि आगरा में की बंजर जमीन पर हमने न्यूरो सर्जरी की पौध रोपी थी। जैसे ही हरियाली हुई और हम यहां चले आए।

 गांव से महानगर और एनसीआर तक

जौनपुर जिले के कटका गांव से  लेकर कानपुर में चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई, आगरा में कई दशक तक न्यूरो सर्जन के रूप में स्थापित होने के बाद नोयडा में सुपरस्पेशलिटी हास्पीटल के संस्थापक तक की संघर्षमय कहानी रमेश चंद्र मिश्रा (डा. आरसी मिश्रा) खुद ही बताते हैं। मस्तिष्क में विद्यमान अनगिनत नसों की अजीबोगरीब हरकत-फितरत भांपने और उन्हें दुरस्त करने में  माहिर  डा. आरसी मिश्रा जीवन के फ्लैशबैक में चले जाते हैं। बकौल डा. मिश्रा, उन्हें न्यूरो सर्जरी की दुनिया में इस मुकाम तक पहुंचने में तमाम मानसिक संघर्ष भी करने पडे़। कुछ संघर्ष तो ऐसे हैं, जिनसे लड़ने के लिए उनके पास संकल्प, धैर्य, संयम के अलावा कोई हथियार नहीं था।

जब मां ने झोलाछाप से पूछी थी बेटे की पढ़ाई की सच्चाई 

वो बताते हैं कि 3 अगस्त 1972 को कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया। जब गांव जाता तो मेरा सामना मंगरू राम नाम क़े झोला छाप से होता। क्योंकि, तब न मैं इंजेक्शन लगा सकता था और न ही दवा का ज्ञान था। इसलिए गांव वालों ने मान लिया मैं किसी काम का नहीं। जो पढ़ाई कर रहा हूँ उससे डॉक्टरी नहीं कर सकता। परिवार में किसी को दवा दिलानी हो या इंजेक्शन लगवाना हो तो मंगरू को ही बुलाया जाता था। मेरी मां तो उससे ही पूछती थी कि डाक्टर साहब, मेरे बेटे से कुछ पूछो और बताओ कि वो कैसी डाक्टरी पढ रहा है?

डा. मिश्रा बताते हैं  कि अज्ञानतावश एमबीबीएस के बाद का मेरा कोई सपना नहीं था। मुझे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के बारे में 1973 में पता लगा। द्वितीय प्रोफ़ेशनल से शिक्षा के साथ दीक्षा भी प्रारम्भ हो गई। पीड़ित से बात कर उनकी स्वास्थ्य समस्या के निदान के प्रयास, हिस्ट्री आफ प्रेज़ेंट इलनेस, से आरम्भ हुआ अध्याय न्यूरो सर्जरी की व्यापक तरंगों से उठतीं मानव विज्ञान के अथाह सागर की भंवर’ लहरों के साथ डूबता उतराता रहा। एमएस सर्जरी और फिर एमसीएच न्यूरो सर्जरी की विशिष्टता भी अर्जित की।

दूसरे की देह की सुरक्षा ही डाक्टर का विशेष अधिकार

बकौल  डा. मिश्रा, जून 1974 में इंजेक्शन रूम पोस्टिंग कर चुका था। मेरे बैच के मित्र ने एक शाम मुझसे कहा कि मैं उसे एक इंजेक्शन लगा दूँ। और हम दोनों स्टूडेंट वार्ड की ओर चल दिए। मुझे मित्र द्वारा दी गयी चुनौती का आभास था। साथ ही सहपाठी के अदम्य विश्वास के उन अप्रतिम क्षणों की आत्मश्लाघा। छात्रावास से अस्पताल तक गम्भीर मुद्रा में आना मुझे अभी तक स्पष्ट याद है। और सफलतापूर्वक इंजेक्शन लगने के बाद की संतुष्टि भी। आज भी ब्रेन टयूमर की सर्जरी के पहले उतना ही डर लगता हैं , उतना ही तनाव और उतना ही संतोषबोध। डा. मिश्रा कहते हैं  कि  अन्य की देह की सुरक्षा का विशेषाधिकार मेडिको के अतिरिक्त समाज में किसी को नहीं प्राप्त होता। हमें पूरे जीवन इस निहित धर्म का पालन करना होता है।

एक परिवार जिनके लिए “भगवान” बन गए

ये करीब बीस साल पहले का वाकया है। मेरे यानी लेखक के छोटे भाई की पत्नी को ब्रेन टयूमर था। उसे लखनऊ में भर्ती कराया। वहां के न्यूरो सर्जन ने दो टूक कह दिया था कि इसमें कुछ नहीं है। घर ले जाओ। ये रात करीब 9 बजे की बात है। एक बार मैं भी किंकर्तव्यविमूढ हो गया। संयमित होने पर मैंने डा. आरसी मिश्रा को रात में ही फोन मिलाया। उनकी हामी पर हम उसे लेकरआगरा के लिए चल दिए। कामायनी अस्पताल में भर्ती करा दिया। अगले दिन दोपहर में डा मिश्रा ने आपरेशन शुरू किया। वे आपरेशन को बीच में ही छोडकर थियेटर से बाहर आए थे और मुझसे कहा- राजेश, इसमें कुछ नहीं है। मैंने कहा आप मिट्टी समझकर ही आपरेशन कर दीजिए। थियेटर से बाहर आने और कुछ नहीं होने का हवाला देने का सिलसिला तीन बार चला। अंत में मैंने कहा कि मेरे लिए वो मिट्टी है, आप अपनी समझ से चाहे जो कुछ करिए।

खैर, करीब पांच घंटे के आपरेशन के बाद वे बाहर आ गए। डाक्टर साहब ने कहा- अब तक के करियर में ब्रेन टयूमर का इतनी बड़ी सर्जरी कभी नहीं की। मरीज कब रिकवर करेगी, कितना करेगी, या नहीं करेगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर, मुझे उनके कौशल पर पूरा  भरोसा था। दो दिन भर्ती रहने के बाद मरीज को घर ले गया। डाक्टर साहब के कौशल का चमत्कार था और भगवान की कृपा, पंद्रह दिन बाद जब मैं मरीज को दिखाने ले गया तो वो अपने पैरों पर चलकर पहुंची। डा. मिश्रा ये देखते ही चौंक गए। कुर्सी से खड़े हो गए। बोले-चमत्कार, भगवान का शुक्रिया। ये तो एक उदाहरण है। न जाने कितने ऐसे परिवार होंगे जिनके लिए वो “भगवान” बन गए। “महानंदन”  बन गए। भगवान से प्रार्थना है कि उनका हास्पीटल भी चिकित्सा जगत में “महानंदन” बना रहे।

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